Thursday, September 19, 2019

एनआईए की विश्वसनीयता पर संदेह?

क्या एनआईए के कन्विक्शन रेट की सराहना होनी चाहिए? स्विटज़लैंड की बर्न यूनिवर्सिटी में 'टेरर प्रॉसिक्युशन इन इंडिया' विषय पर पीएचडी कर रहे शारिब ए अली कहते हैं, ''एनआईए के प्रॉसिक्युशन में प्ली बार्गेनिंग को आज़माया जा रहा है. प्ली बार्गेनिंग का मतलब है कि अभियुक्त ख़ुद को बिना अदालती सुनवाई के गुनाहगार मान लेता है और इसके बदले में उसे कुछ छूट दी जाती है. यह भारत के लिए बिल्कुल नया है जबकि अमरीका में ख़ूब चलता है. इसमें अभियुक्त को बताया जाता है कि क़ानूनी प्रक्रिया काफ़ी लंबी चलेगी और बहुत खर्च होगा इसलिए अपना गुनाह ख़ुद ही कबूल कर लो.''
शारिब कहते हैं, ''एनआईए की प्रक्रिया और चार्जशीट में काफ़ी लंबा वक़्त लगता है. किसी एक मामले में एनआईए चार्जशीट दायर करने में औसत चार से पाँच साल का वक़्त लेती है. इस दौरान अभियुक्त पाँच से छह साल जेल काट लेता है. ऐसे में ऑफर कि
लोग सवाल पूछते हैं कि मोदी सरकार के आने के बाद इन आतंकवादी हमलों में हिन्दू संगठनों के जुड़े अभियुक्त बरी क्यों हो गए? राज्यसभा में यही सवाल पिछले महीने एनआईए संशोधन बिल 2019 पर हो रही बहस के दौरान कांग्रेस नेता अभिषेक मनु सिंघवी ने गृह मंत्री अमित शाह से पूछा था.
इस सवाल के जवाब में अमित शाह ने कहा कि अदालत फ़ैसला चार्जशीट के आधार पर देती है और इन सभी मामलों में चार्जीशीट मोदी सरकार आने से पहले यानी कांग्रेस की सरकार में दायर की गई थी. अमित शाह ने कहा कि कांग्रेस ख़ुद से सवाल पूछे कि चार्जशीट इतनी कमज़ोर क्यों थी?
इस पर अभिषेक मनु सिंघवी ने कहा कि केवल चार्जशीट के आधार पर ही अदालत फ़ैसला नहीं करती है बल्कि जज के सामने माकूल जिरह भी करनी होती है, जो मोदी सरकार ने नहीं किया. सिंघवी ने पूछा कि बरी किए जाने के ख़िलाफ़ एनआईए ने अपील क्यों नहीं की तो शाह ने कहा कि अपील लॉ ऑफिसर के कहने पर होती है और लॉ ऑफिसर ने ऐसा नहीं कहा था.
या जाता है कि अब इतने साल जेल में रह ही लिए तो ख़ुद को गुनाहगार मान लो. अब ये सब मामले भी कन्विक्शन में आ जाते हैं. टाडा का कन्विक्शन रेट एक फ़ीसदी से भी कम था. आतंकवाद को लेकर क़ानून का इतिहास रहा है कि कन्विक्शन रेट काफ़ी नीचे रहा है. लेकिन एनआईए का कन्विक्शन रेट अचानक बढ़ गया.''
2014 में एनडीए जब प्रचंड बहुमत के साथ सत्ता में आया तो उसके बाद से हिन्दू संगठनों से जुड़े जिन व्यक्तियों पर आतंकवादी हमले के आरोप लगे थे, उन मुक़दमों की दिशा बदलती गई.
एनडीए सरकार के आए तीन महीने ही हुए थे कि असीमानंद को समझौता एक्सप्रेस धमाके में अगस्त 2014 में पंजाब-हरियाणा हाई कोर्ट से ज़मानत मिल गई. एनआईए ने ज़मानत का विरोध नहीं किया. इसके साथ ही एनआईए ने कर्नल पुरोहित को क्लीन चिट दे दी, जिनके ख़िलाफ़ एटीएस ने आरोपपत्र दाख़िल किए थे. आख़िरकार 21 मार्च 2019 को असीमानंद समेत सभी चार अभियुक्तों को बरी कर दिया गया. समझौता एक्सप्रेस धमाके में कुल 68 लोगों की जान गई थी.
अजमेर ब्लास्ट 2007- 2017 में स्थानीय अदालत ने असीमानंद को इस मामले से बरी कर दिया. सुनील जोशी की 2007 में हत्या कर दी गई थी, उन्हें इसमें एनआईए की विशेष अदालत ने दोषी ठहराया. इसके अलावा आरएसएस के पूर्व प्रचारक देवेंद्र गुप्ता और भावेश पटेल को आजीवन क़ैद की सज़ा मिली. इसमें साध्वी प्रज्ञा और इंद्रेश कुमार के बरी होने को लेकर एनआईए पर सवाल उठे.
मालेगाँव ब्लास्ट: 2016 में एनआईए ने साध्वी प्रज्ञा का नाम आरोपपत्र में शामिल नहीं करते हुए क्लीन चिट दे दी थी. 2017 में बॉम्बे हाई कोर्ट ने प्रज्ञा ठाकुर को ज़मानत दी. इसी साल इस मामले के मुख्य अभियुक्त कर्नल पुरोहित को सुप्रीम कोर्ट से बेल मिली.
मोडासा ब्लास्ट केस को एनआईए ने 2015 में सबूत के अभाव में बंद करने का फ़ैसला किया था.
कई विशेषज्ञ मानते हैं कि जिन आतंकवादी हमलों में हिन्दू संगठनों से जुड़े लोगों के नाम आए उनमें एनआईए की भूमिका संदिग्ध रही.
2004 से 2008 के बीच सात बम ब्लास्ट किए गए. 2006 और 2008 में महाराष्ट्र के मालेगाँव में, 2006 में समझौता एक्सप्रेस में, 2007 में अजमेर दरगाह में, 2007 में हैदराबाद की मक्का मस्जिद में और 2008 में गुजरात मोडासा में.
इन धमाकों में हिन्दूवादी संगठन 'अभिनव भारत' के नेता अभियुक्त बने और इनमें से कइयों के वर्तमान की सत्ताधारी पार्टी बीजेपी से संबंध रहे हैं. ये नाम हैं- मेजर रमेश उपाध्याय, लेफ्टिनेंट कर्नल श्रीकांत प्रसाद पुरोहित, सुधाकर चतुर्वेदी, साध्वी प्रज्ञा ठाकुर, इंद्रेश कुमार, स्वामी असीमानंद और सुनील जोशी. इन मामलों में पहली गिरफ़्तारी के ठीक बाद सुनील जोशी की 2007 में हत्या कर दी गई थी. असीमानंद ने 2011 में हमले का गुनाह कबूला लिया था लेकिन बाद में मुकर गए थे.
18 मई 2007 को हैदराबाद की चार सदी पुरानी मक्का मस्जिद में जुमे की नमाज़ के वक़्त धमाका किया गया था. इसमें नौ लोगों की मौत हुई थी और 58 लोग ज़ख़्मी हुए थे. करीब 11 साल बाद, 16 अप्रैल 2018 को एनआईए की विशेष अदालत ने मक्का मस्जिद धमाके के सभी पाँच अभियुक्तों को बरी कर दिया.
अभी तक स्पष्ट नहीं हो पाया है कि मस्जिद में धमाका किसने किया था. जस्टिस के. रविंद्र रेड्डी ने पाँचों अभियुक्तों को बरी करने का फ़ैसला देने के बाद अपने पद से इस्तीफ़ा दे दिया था. जब उनके इस्तीफ़े को स्वीकार नहीं किया गया तो उन्होंने स्वेच्छा से रिटायर होने का आवेदन दे दिया. उन्होंने कहा कि वो अब वो न्यायिक पेशे में और काम नहीं करना चाहते हैं.
समाचार एजेंसी पीटीआई की 22 सितंबर 2018 की रिपोर्ट के अनुसार जस्टिस रेड्डी ने पद छोड़ने के बाद बीजेपी में शामिल होने की इच्छा जताई. तब रेड्डी ने कहा था कि उन्होंने बीजेपी प्रमुख अमित शाह से मुलाक़ात भी की थी. आख़िर जज ने इस्तीफ़ा क्यों दिया इसका जवाब आज तक नहीं मिल सका है.

Tuesday, August 27, 2019

अनुच्छेद 370 के बाद माओवादी छापामार अमित शाह के निशाने पर?

क्या जम्मू-कश्मीर में अनुच्छेद 370 ख़त्म करने के बाद अब केंद्र सरकार और ख़ास तौर पर गृह मंत्री अमित शाह के निशाने पर मध्य और पूर्वी भारत में सक्रिय माओवादी छापामार हैं?
राजनीतिक और सामाजिक गलियारों में इस सवाल को लेकर बहस चल रही है क्योंकि अगर गृह मंत्रालय के आंकड़ों को देखा जाए तो साल 2014 से लेकर साल 2018 तक जहां जम्मू और कश्मीर में आम नागरिक, सुरक्षा बलों के जवान और चरमपंथियों को मिलाकर कुल 1315 लोग मारे गए, वहीं इसी अंतराल में नक्सल प्रभावित इलाक़ों में ये संख्या 2056 बताई गई है.
ये आंकड़े चौकाने वाले हैं क्योंकि फ़िलहाल सबका ध्यान जम्मू-कश्मीर में अनुच्छेद 370 के ख़त्म किए जाने पर लगा हुआ है.
गृह मंत्री बनने के बाद अमित शाह ने सोमवार को पहली बार जो बैठक बुलाई तो वो सिर्फ़ और सिर्फ़ नक्सल समस्या और उसके समाधान को लेकर बुलाई गई.
बैठक में दस राज्यों के मुख्यमंत्रियों और केंद्रीय सुरक्षा बलों के महानिदेशकों को भी आमंत्रित किया गया था.
हालांकि पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी, तेलंगाना के मुख्यमंत्री के चंद्रशेखर राव और महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस इस बैठक में शामिल नहीं हो सके और उनकी जगह उनके राज्य के पुलिस महानिदेशकों ने बैठक में शिरकत की.
आंतरिक सुरक्षा से जुड़े विशेषज्ञ तीनों मुख्यमंत्रियों की ग़ैरहाज़री पर आश्चर्य व्यक्त करते हुए कहते हैं कि जहां महाराष्ट्र के गढ़चिरौली में हाल ही में बड़ा नक्सली हमला हुआ था और तेलंगाना हमेशा से ही माओवादियों का गढ़ रहा है, इन राज्यों के मुख्यमंत्रियों का बैठक में नहीं आना अपने आप में चिंता का विषय है.
रकारी सूत्र कहते हैं कि फडणवीस महाराष्ट्र में हो रहे चुनावों को लेकर काफ़ी व्यस्त हैं.
बैठक को लकर कोई आधिकारिक बयान फ़ौरन तो जारी नहीं किया गया, मगर इसमें शामिल कुछ अधिकारियों का कहना था कि ज़ोर इस बात पर दिया गया कि माओवाद प्रभावित इलाक़ों में विकास में कैसे तेज़ी लाई जा सकती है और छापामार युद्ध से किस तरह निपटा जा सकता है.
केंद्रीय रिज़र्व पुलिस बल के महानिदेशक रह चुके प्रकाश सिंह ने बीबीसी से बात करते हुए कहा कि इससे पहले भी बैठकें होती रहीं हैं मगर उन्होंने स्वीकार किया कि गृह मंत्रालय के आंकड़ों को देखने से ज़रूर लगेगा कि नक्सल प्रभावित इलाक़ों में हिंसा ज़्यादा है.
वो कहते हैं, "मगर ये बात भी सच है कि अगर आप सालाना आंकड़ों के हिसाब से देखें तो नक्सली हमलों की घटनाओं में गिरावट ज़रूर आई है."
लेकिन अखिल भारतीय आदिवासी महासभा के अध्यक्ष मनीष कुंजाम को लगता है कि अनुच्छेद 370 ख़त्म करने के बाद अब सरकार आदिवासियों को संविधान द्वारा प्रदान किए गए अधिकारों पर हाथ डालना चाहती है.
मिसाल के तौर पर वो कहते हैं कि आठ अगस्त को विश्व आदिवासी दिवस पर सभी की ये चिंता थी कि माओवादियों के नाम पर कहीं इन अधिकारों को न छीन लिया जाए.
उनका इशारा संविधान की पांचवीं अनुसूची और 'पंचायती राज एक्सटेंशन टू शेड्यूल्ड एरिया एक्ट' की तरफ़ था.
कुंजाम कहते हैं, "इन प्रावधानों की वजह से आदिवासियों की ग्राम सभाओं और पंचायतों को कई अधिकार मिले हुए हैं जिसकी वजह से बड़ी-बड़ी कंपनियों को इन इलाक़ों से खनिज सम्पदा लूटना तो चाहती हैं मगर उनके सामने क़ानूनी अड़चनें आ रहीं हैं."
वैसे उनका आरोप है कि वन अधिकार अधिनियम को भी लचर बनाने की पूरी कोशिश की जा रही है ताकि बड़े पैमाने पर आदिवासियों का विस्थापन हो.
वैसे जुलाई में ही संसद में एक संसद सदस्य के प्रश्न का जवाब देते हुए गृह राज्य मंत्री जी किशन रेड्डी ने कहा था कि भौगोलिक रूप से माओवादियों के प्रभाव वाले इलाक़े 'सिकुड़' रहे हैं.
उनका ये भी कहना था कि अब सिर्फ़ 60 ज़िले ही ऐसे बचे हैं जहाँ माओवादियों का प्रभाव है और उनमे से भी सिर्फ 10 ऐसे ज़िले हैं जहां सबसे ज़्यादा हिंसा दर्ज की गई है.
मगर प्रकाश सिंह कहते हैं कि ये मान लेना सही नहीं है कि सरकार ने माओवादियों को दबा दिया है या उनके प्रभाव को ख़त्म करने में कामियाबी हासिल की है.
उन्हें लगता है, "ऐसा दो बार पहले भी हो चुका है 60 और 70 के दशक में जब वामपंथी विचाधारा से जुड़े कई लोग अलग हो गए और अपनी पार्टियां बना लीं. लेकिन तभी कोंडपल्ली सिथरामैय्यह ने पीपल्स वार ग्रुप बना लिया."
वो ये भी कहते हैं कि 2004 में जब माओवादी कन्युनिस्ट सेंटर और पीडब्लूजी का विलय हुआ तो माओवादियों का पहले से भी ज़्यादा सैन्यीकरण हुआ है.
जानकार मानते हैं कि माओवादी पूरी तरह से पीछे नहीं हटे हैं क्योंकि जंगलों और सुदूर अंचलों में जो आर्थिक और सामजिक हालात हैं वो उन्हें और भी ज़्यादा मज़बूत कर रहे हैं.

Monday, July 1, 2019

يندر أن تفرط البنت المصابة بالاضطراب في الحركة داخل الفصل مقارنة بالولد

وقد يعاني المصاب بعدم التركيز من نسيان أشياء كثيرة وصعوبة في التنظيم وتشتت الذهن بسهولة، أما المصاب بفرط الحركة والاندفاع فقد يصعب عليه الجلوس ساكنا في مكان، وقد يكون دائم التململ في حركته ويقاطع أحاديث الآخرين.
ويجري تشخيص الاضطراب في سن الطفولة عادة، وأغلب المصابين به لا يتجاوزونه في سن البلوغ. كما يؤدي عدم تشخيصه في سن الطفولة إلى حدوث مشكلات أكثر مع البلوغ.
وتقول جونسون-فرغسون: " لم أستطع التركيز بالمرة وأنا في الجامعة" وظهر ذلك في العدول مرارا عن مجال الدراسة والتنقل من مجال لمجال.
كما عانت من الشره المرضي للأكل "البوليميا" طوال سنوات الدراسة في الجامعة، وعلى مدار عقدين لاحقين أفرطت في تناول الكحوليات والمشروبات المنبهة المحتوية على الكافيين والسكر في محاولة لمساعدة نفسها، وهو أمر شائع الحدوث لدى البالغين المصابين باضطراب الانتباه.
وأصبحت حياتها أكثر صعوبة بعد انهيار حياتها الزوجية، لذا سعت حثيثا إلى فتح صفحة جديدة والتخلص من عاداتها السيئة، لكن الأعراض ازدادت سوءا ووصل الأمر إلى حد البقاء لأيام في الفراش.
وتتذكر جونسون-فرغسون قائلة : "كنت لا أستطيع التركيز في أي شيء على الإطلاق في تلك الفترة".
يوجد تباين مؤكد في مدى انتشار هذا الاضطراب بين البنين والبنات.
وخلصت دراسة شملت 2332 من التوائم والأشقاء أجرتها آن آرنت، الخبيرة في الطب النفسي للأطفال بجامعة واشنطن، إلى أن اختلاف التشخيص بين البنين والبنات قد يرجع إلى تباين في شدة الأعراض، فغالبا تظهر أعراض أكثر وأشد على البنين مقارنة بالبنات.
وتقول آرنت إنها رصدت اختلافا عصبيا بيولوجيا دون معرفة سببه، ورجحت أن يكون ذلك نتيجة وجود أثر وقائي على المستوى الوراثي لدى الإناث.
ومع ذلك يظل حجم الفارق بين الجنسين غير محدد، ويجري تشخيص المرض في الواقع بأعداد أكبر بكثير بالنسبة للبنين مقارنة البنات.v
وتشير دراسات تتعلق بمدى انطباق معايير اضطراب فرط الحركة وتشتت الانتباه على السكان إلى ترجيح كفة انتشاره في البنين، ولكن بفارق أقل. وتختلف النسبة باختلاف الدراسة، فتتراوح من 2 : 1 وحتى 10 : 1 بين البنين والبنات.
وتقول فلورنس موليم، الزميلة بهيئة "أكورياس بوبيوليشن هيلث" للاستشارات الصحية : "يفتح ذلك المجال أمام احتمال وجود أعداد أكبر بكثير من الإناث يعانين من المرض ولكن لسبب نجهله لا يجري تشخيصهن بنفس معدل تشخيص الذكور".
وتشير بحوث إلى أنه يجب أن تكون الحالة أشد وأوضح في الإناث مقارنة بالذكور حتى يتم رصدها.
واستطاعت موليم وفريقها، من خلال دراسة شملت 283 طفلا تتراوح أعمارهم بين السابعة والثانية عشرة، فحص التباين المميز بين البنين والبنات الذين تنطبق عليهم المعايير التشخيصية لاضطراب فرط الحركة وتشتت الانتباه، وأولئك المتوافرة لديهم أعراض الاضطراب دون الوصول لحد التشخيص.
وتوصلت موليم، التي كانت مرشحة لنيل درجة الدكتوراه بجامعة كينغز كوليدج لندن في ذلك الوقت، إلى أن الآباء والأمهات قللوا من ظهور أعراض فرط الحركة والاندفاع لدى البنات، بينما أبرزوها أكثر لدى البنين، وذلك من واقع تقييمهم لكل حالة.
كما وجد الباحثون أن الفتيات اللاتي انطبقت عليهن المعايير كن يُعانين غالبا من مشكلات انفعالية أو سلوكية أكبر من البنات اللاتي لم تنطبق عليهن المعايير، بينما اختلف الوضع في حالة البنين.
وفي دراسة مشابهة شملت 19 ألفا و804 توائم سويديين نشرت العام الماضي وجد فريق موليم أن البنات، وليس البنين، هن الأرجح من حيث تشخيص الإصابة بفرط الحركة والاندفاع والمشكلات السلوكية.
كما وجدت الدراسة أن البنات هن الأفضل تعويضا في حالة وجود أعراض تشتت الانتباه مقارنة بالبنين، كما هو الحال بالنسبة لأعراض مرض التوحد، إذ تجيد البنات إخفاء الأعراض بشكل أفضل.
وتقول هيلين ريد، مستشارة الطب النفسي واضطرابات فرط الحركة وتشتت الانتباه لدى هيئة التأمين الصحي البريطانية : "يندر أن تبالغ الفتاة المصابة في حركتها داخل الفصل الدراسي والشجار مع المعلمين والطالبات، فمن تفعل ذلك ستكون محل استهجان شديد من الأقران وغيرهم، وهو ما يثني الفتاة عن التصرف بهذه الطريقة".
وتضيف ريد أن الفتاة تعاني لفترة من أعراض فرط الحركة، ويظهر عليها ذلك في شكل ثرثرة أو تمرد وعدم إذعان للأوامر، و يخفق الآباء والمعلمون في إرجاع ذلك إلى اضطراب فرط الحركة وتشتت الانتباه، لاسيما مع توقع أن الفتاة اجتماعية بطبعها مقارنة بالفتى.
ويلزم إجراء المزيد من البحوث قبل الوقوف على حجم المشكلة.
وإن لم تخضع البنات للتشخيص بسبب عدم نمطية الأعراض، فقد يغفل الأطباء أيضا تشخيص بعض البنين الذي يعانون على الأرجح من اضطرابات فرط الحركة وتشتت الانتباه الحادة.
ويشيع الاعتقاد خطأ أن البنات يعانين أكثر من البنين من أعراض قلة التركيز.
وتقول إليزابيث أوينز، الأستاذ المساعدة بعلم النفس الإكلينيكي بجامعة كاليفورنيا في بيركلي، إن أفضل الأدلة المتوفرة حاليا تظهر تساوي معدلات قلة التركيز بين الفتيان والفتيات.
وتضيف: "إن أعراض قلة التركيز أكثر شيوعا (سواء بين البنين أو البنات) ولكنه أقل رصدا وتشخيصا لأن الطفل أو الطفلة في تلك الحالة يتسبب في مشكلات أقل في الفصل مما لو كان العرض هو فرط الحركة".
وتقول أوينز إن الأعراض في البنات والبنين المصابين بالاضطراب تتشابه أكثر مما تختلف "ما يؤكد أن البنات يعانين بشدة من اضطراب فرط الحركة وتشتت الانتباه، وهو ما أُغفل الاهتمام به لفترة طويلة".
بيد أنه يوجد اختلاف يتمثل في أن البنت التي تعاني من اضطراب الانتباه المركب، بعَرضيه: فرط الحركة وتشتت الانتباه، تكون الأكثر عرضة للسلوك المدمر للنفس في سن البلوغ، كما أن البنت المصابة باضطراب الانتباه أكثر عرضة للقلق والاكتئاب في مرحلة لاحقة من حياتها.
وتابعت أوينز وزملاؤها، كجزء من دراسة بدأت في تسعينيات القرن الماضي، 228 فتاة من بينهن 140 مصابة بالاضطراب، على مدار عشرين عاما.
وتوصل الفريق، في المتابعتين الثانية والثالثة مع بلوغ المشاركات سن 19 و 25 عاما، إلى أن الفتيات اللاتي شُخصت إصابتهن باضطراب الانتباه المركب في الطفولة كن أكثر عرضة لإيقاع الضرر بأنفسهن ومحاولة الانتحار.
ومن المفترض نظريا أن يساعد رصد وعلاج الاضطراب مبكرا في تقليل الخطر، بيد أن أوينز تقول إنه لا يوجد دليل حتى الآن يؤكد ذلك، وتضيف أن "اضطراب فرط الحركة وتشتت الانتباه مزمن، وهو شيء لا يمكن علاجه والشفاء منه".
ومع ذلك يفيد العلاج في تهيئة حالة من التحسن تدريجية.
بدأت جونسون-فرغسون، بعد تشخيص حالتها، تناول دواء يوصف عادة للمصابين باضطراب الانتباه وهو "الليسدكسامفيتامين" وتقول إنه في اليوم التالي لتناول الدواء أمكنها الجلوس لمشاهدة حلقة كاملة من مسلسل تلفزيوني.
ويتعين عليها أن تبذل جهدا كي يحقق الدواء فاعليته من خلال ممارسة الرياضة والالتزام بالأكل الصحي والإقلال من شرب الكحول والتخلي عن الكافيين.
وتقول إن الفائدة المرجوة تستحق بذل الجهد "إذ أصبح بإمكاني التخطيط لما سأنجزه في العمل بشكل لا يصدق. كأنني شخص آخر".
وبخلاف الدواء يجب أن يدرك المريض أنه لا ذنب له جراء ما يعانيه من مشكلات طوال حياته، وتصف جونسون-فرغسون حياتها قبل التشخيص بأنها كانت "42 عاما من الشعور بأنني أختلف عن بقية على الكوكب".
أما الآن فقد بات بمقدورها النظر إلى الجانب المضيء من الحياة في ظل هذا الاضطراب، إذ يمكنها تحويله إلى قوة كالتركيز المفرط لإنجاز مشروع قصير الأجل، الأمر الذي يساعدها على النجاح في مجال تسويق الأعمال الفنية، وفي نفس الوقت لا تغفل جوانب قصورها جراء اضطرابها.
بيد أن كثيرين لم يحالفهم حظ تحقيق النجاح كما فعلت جونسون-فرغسون، وإلى أن نبتعد عن الصورة النمطية لهذا الاضطراب ونكتشف السبب في إغفال تشخيص المصابات به، ستستمر معاناة كثيرات من أعراضه دون مساعدة من أحد.

Tuesday, June 18, 2019

चर्चा में रहे लोगों से बातचीत पर आधारित साप्ताहिक कार्यक्रम

डॉक्टर नाथ आगे बताते हैं, "लीची के पल्प में बहुत से सेहतमंद करने वाले विटामिन और मिनरल होते हैं. कच्ची लीची के बीज में एमसीपीजी की जिस बारीक मौजूदगी की बात की जा रही है, उसका कितना प्रतिशत हिस्सा फल के पल्प में होता है और कितना बीज या छिलके में, इसको लेकर अभी तक कोई निर्णायक शोध सामने नहीं आया है. इसलिए लीची को इंसेफेलाइटिस का मूल कारण बाताने वाले तर्क का न ही सतत (या कंसिसटेंट है) और न ही इसका कोई निर्णायक सबूत हैं".
डॉक्टर नाथ जोड़ते हैं कि सैकड़ों सालों से लीची उगा कर खाने वाले भारत में, इंसेफेलाइटिस विवाद के बाद इस फ़सल पर हमेशा के लिए ख़त्म हो जाने का ख़तरा मँडरा रहा है.
"अगर अगले दो साल ऐसा हाई चलता रहा तो लीची के लिए मशहूर मुज़फ़्फ़रपुर के किसान गहरे नुक़सान में चले जाएंगे और आख़िरकार लीची की खेती छोड़ने पर मजबूर हो जाएँगे. यह दुखद इसलिए है क्योंकि अभी तक यह साबित ही नहीं हुआ है कि इंसेफेलाइटिस के पीछे लीची का हाथ है. हमने ख़ुद भी लीची की 20 प्रकारों पर 2 साल तक शोध किया है और इसके नतीजे हम जल्दी ही प्रकाशित करवाएंगे. हमारे शोध के अनुसार भी लीची को सीधे सीधे इंसेफेलाइटिस के लिए ज़िम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता.
यह छोटी शुरुआत की बहुत बड़ी परिणति है. ओम बिड़ला ने कभी राजस्थान के कोटा में स्कूली संसद से अपना सफ़र शुरू किया और फिर यह यात्रा उन्हें भारत की संसद के स्पीकर पद तक ले गई. कोई उनकी इस कामयाबी पर ख़ुशी से सरोबार है तो कोई हैरान.
कोटा उन दिनों एक ओद्योगिक शहर था और मजदूर आंदोलन के नारे गूंजते रहते थे मगर तभी इस कोलाहल में स्कूली स्तर पर कुछ छात्र नेताओ की आवाजे सुनाई देने लगी.
उनमे ओम बिड़ला का नाम भी शामिल था. वे उस वक्त कोटा में गुमानपुरा सीनियर सेकेंडरी स्कूल की छात्र संसद के प्रमुख बने थे. फिर बिड़ला ने अपनी सक्रियता जारी रखी और एक स्थानीय कॉलेज में छात्र संघ अध्यक्ष पद के लिए दाव लगाया. मगर एक वोट से शिकस्त खा गए. पर बिड़ला ने इस पराजय को भूला दिया और अपने काम में लग गए. वे कोटा में सहकारी उपभोक्ता भंडार संघ के अध्यक्ष चुने गए और यह सार्वजिनक क्षेत्र में उनकी पहली हाज़िरी थी.
उनके जानकर कहते हैं, 'वे अवसर हासिल करने और उस मौक़े को अपने हक़ में ढालने की काबलियत रखते हैं. बिड़ला ने कॉमर्स विषय में स्नातकोत्तर तक की तालीम हासिल की है. लेकिन इस पढाई के बावजूद वे सियासत के अच्छे विद्यार्थियों में गिने जाते हैं. वे एक ऐसा नेता हैं जो बीजेपी में ज़िला स्तर तक सक्रिय रह कर विधानसभा होते हुए लोकसभा तक पहुंचे है.'
पार्टी के भीतर चुनाव प्रबंधन और बूथ स्तर तक कुशल तालमेल के लिए ओम बिड़ला की बानगी दी जाती है. वे बीजेपी में युवा मोर्चा के राजस्थान के अध्यक्ष और बाद में मोर्चे के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष भी रहे हैं.
कोटा से बीजेपी विधायक संदीप शर्मा अपने इस सांसद नेता से बहुत प्रभावित है. शर्मा कहते हैं, 'बिड़ला जी हमेशा अपने लोगों के लिए उपलब्ध रहते हैं. आधी रात को भी किसी ने फोन किया है तो जवाब के लिए तैयार मिलेंगे. शर्मा कहते हैं, 'वे गरीबों के हमदर्द हैं, किसी की पीड़ा उन्हें विचलित कर देती है. अगर कोई कटु बात भी कहेगा तो शांति से सुन लेंगे और पलट कर कभी तीखा उत्तर नहीं देंगे. वे अपने कार्यकर्ता को हमेशा तवज्जो देते हैं. बिड़ला ने सियासत के साथ सहकारी संस्थानों में भी अपनी सक्रियता बरकरार रखी और कई संस्थानों में ऊंचे पदों तक पहुंचे हैं.'
पार्टी के भीतर और बाहर उनके समर्थको की कोई कमी नहीं है. मगर आलोचक भी मुखर हैं. वे कहते हैं, 'बिड़ला बहुत कुशलता से अपने विरोधी को निपटाते है और जब ऐसा करते है तो उनका चेहरा भाव विहीन रहता है.'
आलोचक कहते हैं, 'जब कभी उनके क्षेत्र में उनकी पसंद का उम्मीदवार नहीं मिला तो समानान्तर लोगों को मैदान में उतार दिया. वे बड़े लोगों से रिश्ते बनाने और फिर उन रिश्तों के सहारे ऊंचाई तक पहुंचने में दक्ष हैं.'
कोटा में पार्टी संगठन में उनके साथ काम कर चुके प्रेम कुमार सिंह कहते हैं, 'ऐसा बहुत कुछ है जो ओम बिड़ला को भीड़ से अलग करता है, उनमें आलोचना सुनने की क्षमता है, वे सहिष्णु हैं. यह कितनी बड़ी बात है कि कोई व्यक्ति स्कूल की छात्र संस्था से संसद के स्पीकर पद तक पहुंच जाए और हमारे लोकतंत्र की कामयाबी की गाथा बयान करे.'
बीजेपी में उनके समर्थक कहते हैं, 'बिड़ला एक ऐसा नेता हैं जो लोगों के सुख दुःख में भागीदार रहते हैं. समर्थकों की नज़र में वे चीजों और घटनाओं का ठीक विश्लेषण करते हैं और फिर उसी अनुरूप निर्णय लेते हैं.'
लेकिन आलोचक कहते हैं, 'वे अवसर पर निगाह रखते हैं और मौका मिलते ही उसे ख़ुद के सियासी लाभ में इस्तेमाल कर लेते हैं. इसमें वे अपने साथियों को पीछे छोड़ते चले गए. पार्टी में कभी वे उमा भारती के निकट रहे हैं तो कभी दुसरे नेताओ के. पिछले कई सालो से उपराष्ट्रपति वैंकेया नायडू और पूर्व केंद्रीय मंत्री राजीव प्रताप रूडी से भी उनके करीबी संबध रहे हैं.'
बीजेपी में उनके एक समर्थक इन आलोचनाओं के उत्तर में कहते हैं, 'बिड़ला ऐसे नेता हैं जो रिश्ते निभाते हैं और संकट में कभी अपने दोस्तों को अकेला नहीं छोड़ते.'

Tuesday, May 21, 2019

अदालतों के लिए गर्मियों की छुट्टियां क्यों?

गर्मियों की छुट्टियों का मज़ा कौन लेते हैं? इस सवाल के जवाब में आप तुरंत कहेंगे कि स्कूल और कॉलेज. लेकिन इनके साथ एक नाम और जोड़ दीजिए देश के न्यायालय.
अदालतों में छुट्टियों का कैलेंडर देखने का बाद आपका मन भी करने लगा होगा कि काश हम भी इन अदालतों के कर्मचारी होते, तो इतनी सारी छुट्टियां मिल जातीं.
साल 2018 में सुप्रीम कोर्ट में 193 दिन काम हुआ. जबकि देश की विभिन्न हाईकोर्ट औसतन 210 दिन खुली रहीं. इसके अलावा अन्य अधीनस्त अदालतें 254 दिनों तक काम करती रहीं.
लेकिन इन अदालतों से परे ज़िलों और तालुका स्तर की आपराधिक मामलों की अदालतें छुट्टी वाले दिनों में भी काम करती रहीं.
हालांकि, छुट्टी वाले दिनों में काम के दौरान किसी भी पुराने मामले के लिए नई तारीखों की घोषणा नहीं होती और सिर्फ ज़मानत याचिकाओं और अन्य ज़रूरी मामलों का निपटारा किया जाता है.
अदालतों के अलावा दूसरा कोई भी सरकारी विभाग इतने दिनों तक छुट्टियों पर नहीं जाता. यही वजह है कि अदालतों की ये छुट्टियां हमेशा चर्चा का विषय बनी रहती हैं. कई लोगों का मामना है कि अदालतों की इन छुट्टियों की वजह से ही आम जनता को न्याय मिलने में देरी होती है.
साल 2018 के आंकड़ों के मुताबिक, भारतीय अदालतों में 3.3 करोड़ से अधिक मामले अभी विचाराधीन हैं. विशेषज्ञ बताते हैं कि छुट्टियों के चलते यह आंकड़ा बढ़ता ही जा रहा है.
लेकिन सवाल उठता है कि आखिर अदालतों में इतनी छुट्टियां मिलती क्यों हैं और छुट्टियों का यह नियम आया कहां से?
कई लोगों का कहना है कि अदालतों में गर्मियों की छुट्टियों का नियम अंग्रेज़ों ने अपनी सुविधा के अनुसार बनाया था.
महाराष्ट्र के एक पूर्व महाधिवक्ता श्रीहरि अनेय इन छुट्टियों की बहुत ही कड़े शब्दों में निंदा करते हैं.
वो कहते हैं, ''अंग्रेज़ों ने यह व्यवस्था बनाई. गर्मियों के दिनों में अंग्रेज जज किसी पहाड़ी इलाके में या फिर इंग्लैंड चले जाते थे. आज़ादी के बाद भी हम उनके इस नियम को लागू कर रहे हैं. मेरे विचार से अदालतों के पास बहुत ज़्यादा छुट्टियां हैं. दुनिया में कोई ऐसा देश नहीं जहां कि अदालतें इतनी लंबी छुट्टियों पर जाती हैं.''
वकील और मानवाधिकार कार्यकर्ता असीम सरोडे को लगता है कि अदालतों में लंबित मामलों की संख्या को देखते हुए जजों का गर्मियों की छुट्टियों पर जाना उचित नहीं है.
वे कहते हैं, ''मैं यह नहीं कहता कि अदालतों में छुट्टियां होनी ही नहीं चाहिए. लेकिन छुट्टियों के चलते अदालतों का काम पूरी तरह ठप्प नहीं होना चाहिए. इसके स्थान पर कुछ न कुछ वैकल्पिक व्यवस्था ज़रूर होनी चाहिए. कई बार ऐसे मामले आते हैं जिसमें तुरंत न्याय की आवश्यकता होती है.''
''कई बार मानवाधिकार से जुड़े मामलों में तुरंत न्याय की गुंजाइश होती है लेकिन अदालत छुट्टी पर चल रही होती है, ऐसे हालात में यह साबित करना होता है कि हमें तुरंत न्याय क्यों चाहिए. यह बहुत बड़ा अन्याय है. इसीलिए अदालतों में जजों की संख्या बढ़ाई जानी चाहिए. सभी जजों को छुट्टी पर भेजने की जगह इसमें रोटेशन नीति अपनानी चाहिए.''
असीम सरोडे पुराने नियमों और व्यवस्था को ढोते रहने का विरोध करते हैं और नई व्यवस्था लागू करने की बात करते हैं.
वो कहते हैं, ''दरअसल अदालतों में मिलने वाली यह छुट्टियां अंग्रेज़ों की गुलामी का प्रतीक हैं. हम अभी तक इनसे बाहर नहीं निकल सके हैं. हम विकासशील देश हैं. हमें और तरक्की की ज़रूरत है. और इसके लिए हमें और अधिक काम करने की ज़रूरत है. लेकिन हम तो छुट्टियां ले रहे हैं.''
हालांकि, कुछ लोगों का मत है कि अदालतों में छुट्टियां आवश्यक होती हैं.
बॉम्बे हाईकोर्ट में प्रैक्टिस करने वाले वकील प्रवर्तक पाठक कहते हैं, ''न्यायव्यवस्था के भीतर वकील और जज बहुत अधिक दबाव में काम कर रहे हैं. इस दबाव को कम करने के लिए छुट्टियां बहुत आवश्यक हैं.''
वो साथ ही कहते हैं, ''अदालत में रहना जज की नौकरी का हिस्सा है. लेकिन जब वो कोर्ट में नहीं रहते तब भी वो कोई रिसर्च, किसी ऑर्डर का लेखन, दूसरे आदेश को पढ़ना और क़ानून को लगातार पढ़ते रहने का काम करते रहते हैं. इसलिए उन्हें लंबी छुट्टियों की ज़रूरत महसूस होती है.''
मद्रास हाई कोर्ट के पूर्व जस्टिस हरि पारानथमन मानते हैं कि कोर्ट से दूसरे सरकारी विभागों की छुट्टियों की तुलना करना ठीक नहीं है.
वो कहते हैं, "ये एक अलग तरह का काम होता है. ये सवाल उठाना ग़लत है कि जब किसी अन्य विभाग में छुट्टियां नहीं होती हैं तो कोर्ट में क्यों होनी चाहिए"
लेकिन एक सवाल अभी भी मौजूद है कि क्या अदालतों में करोड़ों मामले कोर्ट की छुट्टियों की वजह से लंबित हैं.
विशेषज्ञ मानते हैं कि भारतीय न्यायपालिका में जजों की संख्या में कमी मामलों के लंबित होने के लिए ज़िम्मेदार है.
जस्टिस पारानथमन कहते हैं, "छुट्टियां कोई मुद्दा नहीं हैं. अदालतों में मामले लंबित हैं क्योंकि किसी तरह की जवाबदेही नहीं है. हाईकोर्ट और सुप्रीम कोर्ट किसी के प्रति जवाबदेह नहीं हैं. निचली अदालतों में अगर कोई फैसला दो साल में नहीं आता है तो हाई कोर्ट उनसे देरी को लेकर सवाल करती हैं. लेकिन हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट से ये सवाल पूछने वाला कोई नहीं है. ऐसे में कानूनी मामले 20 साल तक चलते रहते हैं."
श्रीहरि अनेय मानते हैं कि अदालतों में छुट्टियों के लिए वकील भी ज़िम्मेदार हैं.
वह कहते हैं, "मैं सभी जजों और वकीलों को मिलने वाली छुट्टियों के ख़िलाफ़ हूं. लेकिन वकील भी इस सिस्टम के ख़िलाफ़ नहीं हैं वे असुरक्षित महसूस करते हैं. वे मानते हैं कि अगर वो छुट्टियों पर गए तो कोई दूसरा वकील उनके क्लाइंट ले उड़ेगा. ऐेसे में वे इन छुट्टियों को ठीक मानते हैं."
जब अनेय महाराष्ट्र के एडवोकेट जनरल थे तो उन्होंने सुप्रीम कोर्ट के तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश राजेंद्र लोढ़ा को पत्र लिखकर उच्च न्यायालयों को मिलने वाली छुट्टियों को कम करने की मांग उठाई थी.
इसके बाद मुख्य न्यायाधीश ने एक नोटिस जारी करके सभी बार काउंसिलों और बार एसोशिएसन से छुट्टियों को कम करने पर उनकी राय मांगी थी.
अनेय बताते हैं, "उस वक्त मुझे और छत्तीसगढ़ के एडवोकेट जनरल को छोड़कर सभी बार एसोशिएसन, सभी राज्यों के एडवोकेट जनरल और भारतीय बार काउंसिल ने एक मत में कहा कि उन्हें छुट्टियां चाहिए हैं."
अनेय मानते हैं कि लोग न्यायपालिका का असली मकसद भूल चुके हैं.
वो कहते हैं, "न्यायपालिका जज़ों को नौकरी देने और वकीलों को आय का स्रोत देने के लिए गठित नहीं की गई थी. इसका उद्देश्य लोगों को हो रही समस्याओं का निवारण करने और न्याय देने के लिए किया गया था लेकिन मुख्य उद्देश्य नज़रअंदाज़ हो रहा है."

Monday, January 28, 2019

“我们有责任讲述事实”:《塑胶海洋》制作人专访

电影人乔·鲁克斯顿是纪录片《塑胶海洋》的制作人,这部去年上映的纪录片突出展示了全球塑料污染对海洋环境的毁灭性影响以及给人类健康造成的威胁。

鲁克斯顿曾就职于世界自然基金会和英国广播公司,后参与成立了塑料海洋组织。这家非盈利组织的工作是提高公众意识,使其认识到依赖塑料的危害,以及遏制此种危害的紧迫性。

中外对话(以下简称“中”):为什么我们中 ·鲁克斯顿(以下简称“鲁”):我想这是因为我们一直觉得塑料是一次性的,而且理所应当地认为它的存在也是暂时的。并且,塑料在我们的生活中也太常见了。人们已经逐渐接受塑料无处不在的事实,譬如在沙滩上看到塑料,你也不会觉得诧异。还有一个原因就是有关塑料上附着和析出的化学物质的科学研究都还很新。

对我而言,最震憾的一幕出现在太平洋中央。一个我以为是巨大的垃圾岛的地方,等靠近了,我才意识到它不是岛屿——而是很多细小的塑料颗粒和浮游生物的混合体,它的潜在危害更大。第二年我又去了大西洋,那里的情况也一模一样。

中:为什么说这个问题不仅关系到沿海居民,还关系到全球各地的人?

鲁:这和住不住在沿海没关系,你所呼吸的空气有一半来自海洋。海洋一旦生病,任何呼吸氧气的生物都会有麻烦。目前全球生产塑料超
3亿吨,其中一半都是一次性的,估计每年进入海洋的塑料有800万吨,相当于1961年全球塑料总产量。50年后情况又会是怎样?如果我们让3亿吨塑料都进入海洋,会不会影响海洋吸收二氧化碳、或者制造氧气的能力?要知道,除了推动天气变化,为我们提供食物、休闲方式、交通和其他一切,海洋同样维系着气候的稳定。

然后就是人类健康的问题,刚开始制作这部影片的时候,我甚至没往这方面考虑。这些化学物质会进入食物链,不孕不育、癌症、自身免疫系统问题、内分泌紊乱、发育中儿童的行为问题、以及胎儿发育问题都与其有关。就算是特朗普这样的人也肯定会关心这个问题。

中:你的影片以一个不同的视角看待海洋,和我们平常在电视上看到的很不一样
——是其他媒体在这个问题上有误解吗?

鲁:自然纪录片通常将海洋描绘成一个充满生机和原始活力的地方,但我想从一个完全不同的视角切入。

这是我离开英国广播公司的原因之一。我在自然历史组工作
12年,我们总是把一切都描绘得很美好,这让我非常沮丧。我曾经参与制作过不少有关鲨鱼的纪录片,并且一直想要加入一些有关大批鲨鱼遭猎杀的内容,但事实却是,大家想看的是娱乐性的东西,不想听到坏消息。

我觉得我们有责任讲述事实。越是粉饰太平,人们就会越觉得天下太平,然后继续自己的行为方式。

中:比如不做回收?为什么回收率这么低?

鲁:我觉得是因为我们懒,害怕麻烦。不得不说,在我住的地方有路边回收之前,我得把塑料单独攒起来,开车送到垃圾场,但如果遇到上班来不及或者清洁工人就在门外的情况,只要能把垃圾从厨房清理出去,怎么快,我就怎么干。我现在当然不会这么想,因为我的所学和所见让我不能这么做,但大多数人不会考虑这个问题。

中:塑料生产者该承担多大责任?例如,影片中就讲到了中国石油巨头中石化在香港沿海发生的一起重大的塑料颗粒泄漏事件。

鲁:我觉得他们有很大的责任,但我并不把他们视为敌人。因为我们大家都用塑料,看看我的书桌,有一个装名片的塑料盒子,鼠标、手机、表面是塑料的椅子,指责塑料颗粒生产者是不公平的。

我们得让大家意识到,一次性使用带来的所谓便利是错的。一旦你的脑海中树立了塑料并非一次性物品的理念,你就有很多地方可以做出改变。如用固体肥皂,不要买塑料瓶装的液体肥皂。买纸质包装的黄油
——不用每次都换新的黄油碟。如果不喜欢自来水的味道,就装个过滤器。重新用回钢笔。还有,看在老天的份上,别用吸管了。大多数人才刚刚意识到这个问题?

Thursday, January 10, 2019

كعوان يهنئ الجزائريين بمناسبة حلول السنة الأمازيغية الجديدة يناير

نأ وزير الإتصال جمال كعوان، اليوم الخميس، كافة الشعب الجزائري بمناسبة حلول السنة الأمازيغية الجديدة، المصادف ليوم السبت 12 جانفي 2019.

ولدى منشور فايسبوكي عبر الصفحة الرسمية لوزارة الإتصال، قال الوزير: “ونحن تحتفي بحلول السنة الأمازيغية الجديدة، يناير 2969، إحدى رموز مقومات هويتنا الوطنية وعمق تاريخنا العريق”.
وأكمل كعوان: “يسرني أن أتقدم لأخواتي الجزائريات وإخواني الجزائريين بأصدق عبارات التهاني وأزكى الأماني، سائلا الله تعالى أن يجعل هذه المناسبة السعيدة معلم خير وصحة وهناء لسائر أبناء وبنات شعبنا، وللجزائر فأل رخاء وأمن وسؤدد”.

ستعرض وزير الشؤون الخارجية، عبد القادر مساهل، اليوم الخميس، بالعاصمة الدنماركية “كوبنهاغن” مع نائب رئيس البرلمان الدانماركي، كريستانسن هانريك، التجربة الجزائرية في مكافحة الإرهاب والتطرف.

وحسبما أفاده بيان الوزارة، تمحورت المحادثات حول العلاقات الثنائية والسبل والوسائل الكفيلة بتعزيزها سيما في المجال البرلماني.

حيث أكد مساهل، في هذا الصدد على الدور الهام الذي يلعبه البرلمانيون من البلدين في تطوير العلاقات وترقية المبادلات الإقتصادية بين البلدين.
كما تطرق الجانبان إلى دور الجزائر وإسهامها في الإستقرار الإقليمي، وكذا تجربتها في ميدان مكافحة الإرهاب والتطرف.
من جانبه أشاد كريستانسن بالتجربة الجزائرية في مجال تعزيز دولة القانون وترقية الحكامة وتكريس الديمقراطية، مجددا التأكيد

تحادث وزير العدل حافظ الأختام، الطيب لوح، بالجزائر العاصمة، مع رئيس الاتحاد الدولي للمحامين، ايسوف باديو الذي يقوم بزيارة إلى الجزائر.

هنئت وزير التضامن الوطني غنية الدالية الجزائريين بمناسبة حلول السنة الأمازيغية الجديدة 2969.

ونشرت الوزارة في صفحتها الرسمية على فايسبوك تهنئة بأسم الوزيرة و نيابة عن كل أطارات وموظفي القطاع.
وتمنت الوزيرة ان تكون السنة الجديدة عامرة بالخير و الافراح والمسرات، وان تتعزز ببناء ثقافة التضامن والتكافل الاجتماعي خدمة للمواطن.
في إطار الملتقى الذي ستحتضنه الجزائر غدا الجمعة حول دور المحامي في التنمية الاقتصادية.
وصرح باديو للصحافة عقب هذا اللقاء يقول لقد اِستعلَمْتُ لدى لوح حول التطورات التي شهدتها الجزائر في المجال القضائي على مستوى نصوص  القانون.
بهدف تحسين جودة النظام القضائي وكذا البنى التحتية والتكوين بالإضافة  إلى دور المحامي في الحياة القضائية.
وأشاد ذات المسؤول بتحقيق الجزائر للمعايير الدولية في مجال تحسين جودة  النظام القضائي، مشيرا إلى المجهودات والعمل الجبار الذي قام به لوح  وفريقه.
وأكد باديو انه طلب من وزير العدل أن ينقل لرئيس الجمهورية  شكره على قبوله رعاية هذا الملتقى حول دور المحامي في التنمية الاقتصادية الذي  بادرت به منظمة محاميي الجزائر بالتعاون مع الاتحاد الدولي للمحامين.
على تمسك بلاده بتطوير التعاون الثنائي مع الجزائر