Thursday, September 19, 2019

एनआईए की विश्वसनीयता पर संदेह?

क्या एनआईए के कन्विक्शन रेट की सराहना होनी चाहिए? स्विटज़लैंड की बर्न यूनिवर्सिटी में 'टेरर प्रॉसिक्युशन इन इंडिया' विषय पर पीएचडी कर रहे शारिब ए अली कहते हैं, ''एनआईए के प्रॉसिक्युशन में प्ली बार्गेनिंग को आज़माया जा रहा है. प्ली बार्गेनिंग का मतलब है कि अभियुक्त ख़ुद को बिना अदालती सुनवाई के गुनाहगार मान लेता है और इसके बदले में उसे कुछ छूट दी जाती है. यह भारत के लिए बिल्कुल नया है जबकि अमरीका में ख़ूब चलता है. इसमें अभियुक्त को बताया जाता है कि क़ानूनी प्रक्रिया काफ़ी लंबी चलेगी और बहुत खर्च होगा इसलिए अपना गुनाह ख़ुद ही कबूल कर लो.''
शारिब कहते हैं, ''एनआईए की प्रक्रिया और चार्जशीट में काफ़ी लंबा वक़्त लगता है. किसी एक मामले में एनआईए चार्जशीट दायर करने में औसत चार से पाँच साल का वक़्त लेती है. इस दौरान अभियुक्त पाँच से छह साल जेल काट लेता है. ऐसे में ऑफर कि
लोग सवाल पूछते हैं कि मोदी सरकार के आने के बाद इन आतंकवादी हमलों में हिन्दू संगठनों के जुड़े अभियुक्त बरी क्यों हो गए? राज्यसभा में यही सवाल पिछले महीने एनआईए संशोधन बिल 2019 पर हो रही बहस के दौरान कांग्रेस नेता अभिषेक मनु सिंघवी ने गृह मंत्री अमित शाह से पूछा था.
इस सवाल के जवाब में अमित शाह ने कहा कि अदालत फ़ैसला चार्जशीट के आधार पर देती है और इन सभी मामलों में चार्जीशीट मोदी सरकार आने से पहले यानी कांग्रेस की सरकार में दायर की गई थी. अमित शाह ने कहा कि कांग्रेस ख़ुद से सवाल पूछे कि चार्जशीट इतनी कमज़ोर क्यों थी?
इस पर अभिषेक मनु सिंघवी ने कहा कि केवल चार्जशीट के आधार पर ही अदालत फ़ैसला नहीं करती है बल्कि जज के सामने माकूल जिरह भी करनी होती है, जो मोदी सरकार ने नहीं किया. सिंघवी ने पूछा कि बरी किए जाने के ख़िलाफ़ एनआईए ने अपील क्यों नहीं की तो शाह ने कहा कि अपील लॉ ऑफिसर के कहने पर होती है और लॉ ऑफिसर ने ऐसा नहीं कहा था.
या जाता है कि अब इतने साल जेल में रह ही लिए तो ख़ुद को गुनाहगार मान लो. अब ये सब मामले भी कन्विक्शन में आ जाते हैं. टाडा का कन्विक्शन रेट एक फ़ीसदी से भी कम था. आतंकवाद को लेकर क़ानून का इतिहास रहा है कि कन्विक्शन रेट काफ़ी नीचे रहा है. लेकिन एनआईए का कन्विक्शन रेट अचानक बढ़ गया.''
2014 में एनडीए जब प्रचंड बहुमत के साथ सत्ता में आया तो उसके बाद से हिन्दू संगठनों से जुड़े जिन व्यक्तियों पर आतंकवादी हमले के आरोप लगे थे, उन मुक़दमों की दिशा बदलती गई.
एनडीए सरकार के आए तीन महीने ही हुए थे कि असीमानंद को समझौता एक्सप्रेस धमाके में अगस्त 2014 में पंजाब-हरियाणा हाई कोर्ट से ज़मानत मिल गई. एनआईए ने ज़मानत का विरोध नहीं किया. इसके साथ ही एनआईए ने कर्नल पुरोहित को क्लीन चिट दे दी, जिनके ख़िलाफ़ एटीएस ने आरोपपत्र दाख़िल किए थे. आख़िरकार 21 मार्च 2019 को असीमानंद समेत सभी चार अभियुक्तों को बरी कर दिया गया. समझौता एक्सप्रेस धमाके में कुल 68 लोगों की जान गई थी.
अजमेर ब्लास्ट 2007- 2017 में स्थानीय अदालत ने असीमानंद को इस मामले से बरी कर दिया. सुनील जोशी की 2007 में हत्या कर दी गई थी, उन्हें इसमें एनआईए की विशेष अदालत ने दोषी ठहराया. इसके अलावा आरएसएस के पूर्व प्रचारक देवेंद्र गुप्ता और भावेश पटेल को आजीवन क़ैद की सज़ा मिली. इसमें साध्वी प्रज्ञा और इंद्रेश कुमार के बरी होने को लेकर एनआईए पर सवाल उठे.
मालेगाँव ब्लास्ट: 2016 में एनआईए ने साध्वी प्रज्ञा का नाम आरोपपत्र में शामिल नहीं करते हुए क्लीन चिट दे दी थी. 2017 में बॉम्बे हाई कोर्ट ने प्रज्ञा ठाकुर को ज़मानत दी. इसी साल इस मामले के मुख्य अभियुक्त कर्नल पुरोहित को सुप्रीम कोर्ट से बेल मिली.
मोडासा ब्लास्ट केस को एनआईए ने 2015 में सबूत के अभाव में बंद करने का फ़ैसला किया था.
कई विशेषज्ञ मानते हैं कि जिन आतंकवादी हमलों में हिन्दू संगठनों से जुड़े लोगों के नाम आए उनमें एनआईए की भूमिका संदिग्ध रही.
2004 से 2008 के बीच सात बम ब्लास्ट किए गए. 2006 और 2008 में महाराष्ट्र के मालेगाँव में, 2006 में समझौता एक्सप्रेस में, 2007 में अजमेर दरगाह में, 2007 में हैदराबाद की मक्का मस्जिद में और 2008 में गुजरात मोडासा में.
इन धमाकों में हिन्दूवादी संगठन 'अभिनव भारत' के नेता अभियुक्त बने और इनमें से कइयों के वर्तमान की सत्ताधारी पार्टी बीजेपी से संबंध रहे हैं. ये नाम हैं- मेजर रमेश उपाध्याय, लेफ्टिनेंट कर्नल श्रीकांत प्रसाद पुरोहित, सुधाकर चतुर्वेदी, साध्वी प्रज्ञा ठाकुर, इंद्रेश कुमार, स्वामी असीमानंद और सुनील जोशी. इन मामलों में पहली गिरफ़्तारी के ठीक बाद सुनील जोशी की 2007 में हत्या कर दी गई थी. असीमानंद ने 2011 में हमले का गुनाह कबूला लिया था लेकिन बाद में मुकर गए थे.
18 मई 2007 को हैदराबाद की चार सदी पुरानी मक्का मस्जिद में जुमे की नमाज़ के वक़्त धमाका किया गया था. इसमें नौ लोगों की मौत हुई थी और 58 लोग ज़ख़्मी हुए थे. करीब 11 साल बाद, 16 अप्रैल 2018 को एनआईए की विशेष अदालत ने मक्का मस्जिद धमाके के सभी पाँच अभियुक्तों को बरी कर दिया.
अभी तक स्पष्ट नहीं हो पाया है कि मस्जिद में धमाका किसने किया था. जस्टिस के. रविंद्र रेड्डी ने पाँचों अभियुक्तों को बरी करने का फ़ैसला देने के बाद अपने पद से इस्तीफ़ा दे दिया था. जब उनके इस्तीफ़े को स्वीकार नहीं किया गया तो उन्होंने स्वेच्छा से रिटायर होने का आवेदन दे दिया. उन्होंने कहा कि वो अब वो न्यायिक पेशे में और काम नहीं करना चाहते हैं.
समाचार एजेंसी पीटीआई की 22 सितंबर 2018 की रिपोर्ट के अनुसार जस्टिस रेड्डी ने पद छोड़ने के बाद बीजेपी में शामिल होने की इच्छा जताई. तब रेड्डी ने कहा था कि उन्होंने बीजेपी प्रमुख अमित शाह से मुलाक़ात भी की थी. आख़िर जज ने इस्तीफ़ा क्यों दिया इसका जवाब आज तक नहीं मिल सका है.